6 दिसंबर 1992 के दिन जब आरएसएस की साजिश के चलते अयोध्या की ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था तो उसके मलबे के नीचे बहुत कुछ दब गया था। सुप्रीम कोर्ट का उत्तर प्रदेश सरकार के ऊपर से विश्वास चकनाचूर हो गया था, इंसानी रिश्तों के अर्थ बदलने लगे थे और पहली बार दंगा गांवों में फैल गया था।
हिंदुत्व के नाम पर आतंक की खेती करने वाली जमातों की पूरी कोशिश थी कि इस देश में मुसलमानों को अपमानित किया जाय उनकी देश प्रेम की भावना पर सवाल उठाया जाय। हर शहर में मुसलमान को घेरने की कोशिश की जा रही थी। मुंबई शहर में शिव सेना की वजह से मुसलमानों को बहुत मुश्किलें पेश आईं, बहुत सारे घर जला दिए गए, लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। बहुत सारे मामलों में तो मरे हुए लोगों की लाशें गायब कर दी गईं। दंगाइयों को मालूम था कि अगर मृतक की लाश गायब कर दी जाय तो उसके आश्रितों को मुआवज़ा नहीं मिलता।
बंबई दंगों में मारे गए बहुत से लोगों की लाशें भी नहीं मिली थीं। कहीं-कहीं तो पूरे परिवार तबाह हो गए थे और बच्चे अनाथ हो गए थे। बंबई और अन्य शहरों के दंगाइयों के खिलाफ पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग लामबंद हो गए थे। दंगा करने वालों के खिलाफ एक मौन आक्रोश था लेकिन नागरिकों का एक वर्ग ऐसा भी था जिनका आक्रोश मुखर था। बंबई में धर्मनिरपेक्ष बुद्घिजीवियों की खासी बड़ी संख्या है। असगर अली इंजीनियर राम पुनियानी, शबाना आजमी, सुमा जोसन, शुक्ला सेन कुछ ऐसे नाम हैं जो दंगे के खिलाफ जनमत बनाने में जुट गए। चिंतित नागरिकों की जमात में एक ऐसा आदमी था जो सरकारी अफसर था, दंगा पीडि़तों की मदद करना उसकी सरकारी ड्यूटी थी। वह भी दंगाइयों के हौसलों के सामने अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था।
मुंबई दंगों के बाद किसी नेता की हिम्मत नहीं थी कि पीडि़तों के इलाकों में शक्ल दिखाने जा सके। सबको मालूम था कि उस वक्त की कांग्रेसी सरकार के दंगाइयों के नेता से बहुत अच्छे संबंध थे। सरकार की ध्वस्त हो चुकी साख के बीच किसी सरकारी अफसर का वहां पहुंचना और पीडि़त लोगों का विश्वास हासिल कर पाना बहुत ही कठिन काम था। ऐसे माहौल में महाराष्ट्र में तैनात आईएएस अधिकारी सतीश त्रिपाठी ने जब दंगा पीडि़त इलाकों का दौरा किया तो सन्न रह गए थे। दंगाइयों ने जिस तरह से मुसलमानों को तबाह किया था उसके बारे में सोच कर आज भी वे सिहर उठते हैं। त्रिपाठी ने देखा कि सरकारी कायदे कानून ऐसे हैं जिनकी सीमा में रहकर पीडि़तों की मदद नहीं की जा सकती।
उन्होंने एक गैर सरकारी संगठन बनाकर लोगों की मदद करने का फैसला किया और 'सेतु' नाम का संगठन बनाया। दंगे में मारे गए जिन लोगों की लाशों को गायब कर दिया था या जिनका अपहरण करके कहीं और ले जाकर मारा गया था और शव ठिकाने लगा दिया गया था उनके परिवार वालों को मदद दिलवाने के लिए सतीश त्रिपाठी ने दिल्ली तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने सरकारी मशीनरी का पीडि़तों के पक्ष में इस्तेमाल करने का फैसला किया। साथ ही अपने स्वयंसेवी संगठन को भी सक्रिय कर दिया। उनके संगठन ने दंगों में अनाथ हुए 92 बच्चों की पढ़ाई लिखाई का जिम्मा लिया।
इनमें से कई बच्चे तो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं। बाकी पढ़ रहे हैं और आगे चलकर उनके भी कामकाज में लग जाने की संभावना है। सतीश त्रिपाठी अब सरकारी सेवा से रिटायर हो चुके हैं। सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में उनकी सोच अन्य लोगों के लिए उदाहरण बन सकती है। मूलरूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया के रहने वाले सतीश त्रिपाठी ने कलकत्ता विश्व विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करके आईएएस में प्रवेश किया था। 37 साल की सेवा के बाद सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं अब वह काम पूरी मेहनत से कर रहे हैं जो वे हमेशा से ही करना चाहते थे। अब वे पूरा समय मुसलमानों की पक्षधरता में लगाते हैं।
दिसंबर 1992 के बाद जब सारी दुनिया बदल गई थी तो बहुत सारे लोगों की शख्सियत की पहचान हुई। बाद में उन्होंने महाराष्ट्र के औरंगाबाद और मालेगांव के पीडि़तों के साथ खड़े होकर उनकी मदद की, लापता लोगों को तलाशने में सरकारी ताकत का इस्तेमाल किया। सतीश त्रिपाठी की संस्था सेतु का सांप्रदायिक सदभाव का रिकॉर्ड अनुकरणीय है। इसीलिए उनकी संस्था को सन 2007 का राष्टï्रीय सांप्रदायिक सदभावना पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार केंद्र सरकार की तरफ से सांप्रदायिकता के खिलाफ काम करने वालों को दिया जाता है। आजकल श्री त्रिपाठी मदरसों में पढऩे वाले गरीब मसुलमानों के बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मदरसों की व्यवस्था बहुत ही अव्यवस्थित है। जो भी बच्चे वहां भरती होते हैं, उसमें मुश्किल से दो तीन फीसद बच्चे ही धार्मिक विषयों की उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं और समाज में सम्मानित होते हैं।
लेकिन 95 फीसद बच्चे मदरसे में चार पांच साल बिताकर ही वापस आ जाते हैं। तब तक उनकी उम्र 13-14 साल की हो चुकी होती है। ज़ाहिर है वे नए सिरे से पढ़ाई नहीं शुरू कर सकते और शिक्षा के अभाव में सही रोजगार नहीं मिलता। सतीश त्रिपाठी ने ऐसी स्कीम बनाई है कि इन बच्चों को उनके मदरसों में ही सर्वशिक्षा अभियान की योजना के तहत दीनी तालीम के अलावा अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाय। जब यह बच्चे मदरसों से निकलते हैं तो उनके पास पांचवी या छठवीं पास का ट्रांसफर सर्टिफिकेट होता है जो सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त होता है और जिसकी बिना पर उन्हें छठवीं या सातवीं क्लास में प्रवेश मिल जाता है। इस तरीके से वे अपनी ही आयु वर्ग के बच्चों के साथ उच्च शिक्षा हासिल कर सकते हैं।
सतीश त्रिपाठी का यह काम आने वाली नस्लों को इज्ज़त से रोटी कमाने और सम्मान से जिंदा रहने का मौका देता है। इस तरह से शिक्षित नागरिक मदरसा की शिक्षा के कारण अच्छी उर्दू के जानकार होंगे। इनको धार्मिक मामलों की समझ होगी और नौकरी के लिए ज़रूरी शिक्षा भी उनके पास होगी जिसकी वजह से उन्हें समाज में सम्मान मिलेगा। समाज को सतीश त्रिपाठी जैसे लोगों पर गर्व करना चाहिए।
कई सम्भावित खतरों के बाद भी मैं यह टिप्पणी कर रहा हूँ। त्रिपाठी जी नररत्न हैं। उनको मेरे प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है।
ReplyDeleteकथित बाबरी मस्जिद इस देश के लैण्डस्केप पर एक दाग थी वैसे ही जैसे ज्ञानवापी और मथुरा की मस्जिदें हैं।उसे/उन्हें हटना ही था/है, चाहे आज या 100 वर्षों के बाद।
उसे हटाने के संघ परिवार के भावना दोहन तरीके से असहमति हो सकती है। प्रश्न यह है कि इन विस्फोटक मुद्दों पर यथास्थिति बनाए रखने की वकालत के दोषी ऐसे मौके साम्प्रदायिक तत्वों को देते ही क्यों हैं?
खुद आगे आकर सम्भावनाएँ समाप्त क्यों नहीं कर देते? सेकुलरी छवि में दाग लगने का खतरा रहता है इसलिए?
कश्मीरी पंडितों की पीड़ा पर भी कुछ लिखिए न। हाँ, बंगलादेशियों पर भी लिखना न भूलिएगा।
यह खबर तो दैनिक जागरण की फ्रंट पेज एंकर थी।
ReplyDeleteमानवीय संवेदना और सरोकार का मर्मस्पर्शी विवरण। शुक्रिया।
ReplyDeleteवेद रत्न जी,
ReplyDeleteक्या इस टिपण्णी में मैंने कहीं दावा किया है कि यह मेरी खोजी पत्रकारिता का कमाल है. मेरे भाई दैनिक जागरण के ओम प्रकाश तिवारी की खबर पढ़ कर मैंने इसे संपादकीय तौर लिखा है. अगर कोई ग़लती की हो तो माफ़ करें.विजय भाई साहेब आपकी बहुत तारीफ़ करते हैं इस लिए आपकी योग्यता का मैं प्रशंसक हूँ लेकिन कृपा करके कुशाग्रबुद्धि बच्चों की तरह टिपण्णी करने की आदत डालें .बड़े होकर बहुत आनंद आएगा.आशा है सानंद होंगें.
इस देश को ऐसे असंख्य त्रिपाठियों और आपकी लेखनी की जरूरत है शेष जी। सच पूछिए तो ऐसे ही त्रिपाठियों और शेष जी आप जैसे लोगों से भारत बहुत मजबूत बना हुआ है। वरना कसाब और अफजल जैसे लोग औऱ इन्हीं के भाई भगवाधारी तो इस ताने-बाने को कब का बिखेर देते। इशरजहां के मुद्दे पर आपने सबसे पहले भड़ास4मीडिया पर लिखा, मैं सोच रहा था कि उसके लिए आपको बधाई कहां दूं। यह मंच तो बस अनायास ही मिल गया।
ReplyDeleteअगर आप इनके बारे में न लिखते तो हम जैसों को पता ही न चल पाता। जरूरी नहीं कि हर आदमी हर खबर पढ़ ही पाए।
हमें ऐसे त्रिपाठी मुस्लिम समाज में भी चाहिए।
आपको फिर से बधाई।