Saturday, April 19, 2014

अस्सी के संतो ,असंतों और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला ज़बरदस्त हो



शेष नारायण सिंह

बनारस के अस्सी  घाट की पप्पू की चाय की  दूकान एक बार फिर चर्चा में है . पता चला है कि बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार , नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के प्रस्तावक के रूप में पप्पू को भी जिला निर्वाचन अधिकारी के सामने पेश किया जायेगा. पप्पू की चाय की दूकान  का ऐतिहासिक ,भौगोलिक और राजनीतिक महत्त्व है . अपने उपन्यास ' काशी का अस्सी ' में काशी नाथ सिंह ने पप्पू की दूकान को अमर कर दिया है " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म भी बन चुकी है . इस फिल्म का निर्माण लखनऊ के किसी व्यापारी ने किया है .डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी इस फिल्म के निदेशक हैं .नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म पिंजर बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने पिंजर फिल्म में देखा था उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली. 

काशी नाथ सिंह का उपन्यास " काशी का अस्सी "  पप्पू की दूकान के आस पास ही  मंडराता रहता है  .बताते हैं कि शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मोहल्ला अस्सी. है . अस्सी चौराहे पर भीड़ भाड वाली  चाय की एक दुकान है . इस दूकान पर रात दिन बहसों में उलझते ,लड़ते- झगड़ते कुछ स्वनामधन्य अखाडिये बैठकबाज़ विराजमान रहते हैं . न कभी उनकी बहसें ख़त्म होती  हैं , न सुबह शाम . कभी प्रगतिशील और लिबरल राजनीतिक सोच वालों के केंद्र रहे इसी अस्सी को केंद्र बनाकर इस बार नरेंद्र मोदी की पार्टी वाले वाराणसी का अभियान चला रहे हैं . इस अभियान में
 वाराणसी में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल को  मोदी के समर्थक भगा देने के चक्कर में हैं . अरविन्द केजरीवाल जहां भी जा रहे हैं बीजेपी कार्यकर्ता उनके  ऊपर पत्थर ,टमाटर आदि फेंक रहे हैं .  इन कार्यकर्ताओं के इस कार्यक्रम के चलते केजरीवाल का नाम देश के सभी टी वी चैनलों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया हुआ है . हालांकि सच्चाई यह है कि बनारस की ज़मीन पर अभी केजरीवाल का कोई नाम नहीं है . बनारस में रहने वाले और पप्पू की दूकान को राजनीतिक समझ की प्रयोगशाला मानने वाले एक गुनी से बात हुयी तो पता चला कि अरविन्द केजरीवाल के साथ आये हुए लोग भी बनारस में अजनबी ही हैं . वाराणसी के पत्रकारों से चर्चा करने पर पता चला है कि नरेंद्र मोदी का मीडिया प्रोफाइल इतना बड़ा है कि उनकी हार के बारे में सोचना भी अजीब लगता है लेकिन यह असंभव भी नहीं है . समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के मज़बूत उम्मीदवार है . समाजवादी पार्टी ने एक मंत्री को चुनाव में उतार दिया है . पूरे सरकारी तामझाम के साथ यह मंत्री चुनाव लड़ रहा है . जानकारों की राय है कि ज्यों ज्यों चुनाव आगे बढेगा ,अरविन्द केजरीवाल की टीम को अंदाज़ लग जाएगा कि मीडिया में चाहे जितना प्रचार कर लें लेकिन बनारस की ज़मीन पर उनके लिए मुश्किलें पेश आयेगीं और आती ही रहेगीं . अभी  यह प्रचार कर दिया गया है कि मुसलमानों का  वोट थोक में अरविन्द केजरीवाल को मिल रहा है . इसके कारण बीजेपी के रणनीतिकारों में खुशी है . उनको मालूम है की अगर बीजेपी विरोधियों के वोट बिखरते हैं तो नरेंद्र मोदी की लड़ाई बहुत आसान हो जायेगी
लेकिन  यह अभी बहुत जल्दी का आकलन है . काशी में कई दशक से पत्रकारिता कर रहे एक वरिष्ट पत्रकार ने बताया कि वाराणसी में नरेंद्र मोदी को सही चुनौती केवल अजय राय  ही दे सकते  हैं .वाराणसी के अलग अलग चुनावों में अजय राय बड़े बड़े महारथियों को हरा चुके हैं . बनारस के कवि, व्योमेश शुक्ल बताते हैं कि ओम प्रकाश राजभर, ऊदल,  सोनेलाल पटेल आदि कुछ ऐसे लोग हैं जिनको अजय राय ने हराया है . जिस तरह से अरविन्द  केजरीवाल को हर चौराहे पर नरेंद्र मोदी के समर्थक अपमानित कर रहे हैं , उनकी हिम्मत नहीं पड़ेगी कि अजय राय के समर्थकों के खिलाफ हाथ उठायें . अजय  राय के  बारे  में कहा जाता है कि उनको वाराणसी में हरा पाना  बहुत मुश्किल है . एक बार तो किसी उपचुनाव में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री , मायावती ने अपने २३ मंत्रियों को वाराणसी में  चुनाव प्रचार के काम में लगा दिया था लेकिन अजय राय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए थे. वाराणसी में यह चर्चा है कि अगर मुलायम सिंह यादव अमेठी और रायबरेली की तर्ज़ पर वाराणसी में भी अपना उम्मीदवार हटा  लें तो मोदी की काशी की लड़ाई बहुत ही मुश्किल हो जायेगी . आज़मगढ़ से अपना परचा दखिल करके आज़मगढ़ और वाराणसी कमिश्नरी में मुलायम सिंह  यादव ने बीजेपी उम्मीदवारों की जीत की संभावना  को बहुत ही सीमित तो पहले ही कर दिया है .
बहरहाल इस चुनाव में हार जीत चाहे जिसकी हो , काशी वालों को डर है कि कहीं बनारस न  हार जाए  . यहाँ भलमनसाहत की एक परम्परा रही है . १८०९ में पहली बार यहाँ एक बहुत बड़ा साम्प्रदायिक दंगा हुआ था .अंग्रेजों का राज था और कई महीनों तक खून खराबा चलता रहा था . लाट भैरो नाम के  इस साम्प्रदायिक बवाल से हर बनारसी डरता रहा है . बनारस के पुराने प्रमियों से बात करके पता चलता है की पिछली पीढ़ियाँ आने वाली पीढ़ियों को साम्प्रदायिक  दहशत से आगाह कराती रहती हैं . यहाँ  के लोगों को मालूम है कि चुनावों की तैयारियों में मुज़फ्फरनगर के दंगों का कितना योगदान रहा है . ख़तरा यह है कि राजनेता बिरादरी चुनाव जीतेने के लिए कहीं वैसा ही कुछ यहाँ न कर बैठे . बाकी भारत की तरह राजनीतिक  बिरादरी को बनारस में भी शक की निगाह से देखा जाता है और यह माना जाता है कि नेता  अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं .पिछले कुछ दिनों से पप्पू की चाय की दूकान पर जिस तरह की राजनीतिक  चर्चा चल रही है उस से साफ़ है कि इस बार का चुनाव बिलकुल वैसा नहीं होगा जैसा होना चाहिए,जैसा आम तौर पर बनारस में चुनावों में होता है .
आम बनारसी की इच्छा  है कि चुनाव में मुख्य मुकाबले में ऐसा एक व्यक्ति ज़रूर होना चाहिए जिसको बनारस से मुहब्बत हो , जो बनारस की इज्ज़त और शान बचाए रखने के लिए चुनाव में हार जाना भी ठीक समझे. बनारस वास्तव में गरीब लोगों का शहर है . हालांकि यहाँ संपन्न लोगों की भी खासी संख्या है लेकिन शहर के मिजाज़ का स्थाई भाव गरीबी ही है . यहाँ गरीबी को भी धकिया कर मज़ा लेने की परम्परा है . कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट औरर बदन पर जनेऊ डाले अपने आप में मस्त रहने वाले लोगों का यह शहर किसी की परवाह नहीं करता.  कहते हैं कि लंगोट और जनेऊ तो आजकल कमज़ोर पड़ गए हैं लेकिन गमछा अभी भी बनारसी यूनीफार्म का अहम हिस्सा है . बिना किसी की परवाह किये मस्ती में घूमना इस शहर का पहचान पत्र है . अस्सी घाट की ज़िंदगी को केंद्र में रख कर लिखा गया काशी नाथ सिंह का उपन्यास  और उसकी शुरुआत के कुछ पन्ने बनारस की ज़िंदगी का सब कुछ बयान कर देते हैं लेकिन उन सारे शब्दों का प्रयोग एक पत्रकार  के लेख में नहीं किया जा सकता . वास्तव में अस्सी बनारस का  मुहल्ला नहीं है ,अस्सी वास्तव में " अष्टाध्यायी " है और बनारस उसका भाष्य . पिछले पचास वर्षों से 'पूंजीवाद ' से पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए ..मगर चाहने से क्या होता है ?
 इसी बनारस की पहचान की हिफाज़त के  लिए गंगा के किनारे से तरह तरह की आवाजें आ रही हैं . लोगों की इच्छा है की मुख्य मुकाबले में कम से कम एक बनारसी ज़रूर हो . सबको मालूम है कि  नरेंद्र मोदी तो हटने वाले नहीं हैं क्योंकि उनको प्रधानमंत्री पद के  लिए अभियान चलाना है . इसलिए लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अरविन्द केजरीवाल की हट  जाएँ क्योंकि वे बनारस में नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रचार करके , किसी गली मोहल्ले में थोडा बहुत पिट पिटा कर केवल ख़बरों में बने रह सकते हैं लेकिन बनारस के हर मोड़ पर वे मोदी वालों का रोक नहीं पायेगें .  मोदी और केजरीवाल को इस  बात की परवाह नहीं रहेगी कि बनारस की इज्जत बचती है कि  धूल में मिल जाती है . इसलिए अस्सी मोहल्ले के आस पास मंडराने वाले संत , असंत और घोंघाबसंतों की तमन्ना है कि मुकाबला नरेंद्र मोदी का ज़बरदस्त हो लेकिन उनके खिलाफ कोई बनारसी ही मैदान ले. इस सन्दर्भ में मैंने एक  बुढऊ कासीनाथ से बात की . वे इन्भरसीटी में मास्टर थे , कहानियां-फहानियाँ लिखते थे  और अपने दो चार बकलोल दोस्तों के साथ  मारवाड़ी सेवा संघ के चौतरे पर अखबार बिछाकर उसपर लाई दाना फैलाकर ,एक पुडिया नमक के  साथ भकोसते रहते थे  . पिछले  दिनों इन महोदय के बारे में प्रचार कर  दिया  गया था कि यह मोदी के पक्ष में चले गए थे लेकिन वह खबर झूठ फैलाने वालों की बिरादरी का आविष्कार मात्र थी. वे  डंके की चोट पर नरेंद्र मोदी को हराना चाहते हैं और उनकी  नज़र में कांग्रेसी उम्मीदवार अजय राय मोदी को एक भारी चुनौती  दे सकता है . काशी नाथ सिंह बार बार यह कहा  है की नरेंद्र मोदी को  खांटी बनारसी चुनौती मिलनी चाहिए और वह इसी अस्सी की सरज़मीन से मिलेगी . उन्होने मुझे  भरोसा दिलाया कि बनारस में अस्सी के बाहर भी तरह की चर्चा सुनने में आ रही है .

Friday, April 18, 2014

पूंजीवादी निजाम से भी खूंखार अर्थव्यवस्था का वादा , कांग्रेसी घोषणा पत्र में धन्नासेठों की मनमानी का पुख्ता इंतज़ाम


शेष नारायण सिंह 

27 मार्च का लेख 


.कांग्रेस पार्टी ने पूरे जोशो खरोश के साथ अपना चुनाव घोषणापत्र जारी कर दिया . हर बार की तरह इस बार भी कुछ वैसे ही वायदे किये  गए जिनको पूरा कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होता है .लेकिन इस बार कांग्रेस के  घोषणा पत्र में वचन दिया गया है कि देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से इकनामिक फ्रीडम के आर्थिक दर्शन की बुनियाद पर डाल दिया जाएगा . कांग्रेस पार्टी ने जो घोषणा पत्र जारी किया है उसके आधार पर अगर अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया गया तो आर्थिक गतिविधियों पर जो थोडा बहुत सार्वजनिक कंट्रोल बना हुआ है वह भी पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा . इकनामिक फ्रीडम की सर्वमान्य परिभाषा में बताया गया है कि यह किसी भी देश में आर्थिक  सम्पन्नता हासिल करने का वह तरीका है जिसमें किसी सरकार या किसी आर्थिक अथारिटी को कोई हस्तक्षेप न हो . व्यक्तियों को अपनी निजी संपत्ति, मानव संसाधन और श्रम का संरक्षण करने की असीमित  आज़ादी होती है . पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में इकानामिक फ्रीडम के तत्व होते हैं .अगर उसमें सविल लिबर्टी के तत्व डाल दिए जाएँ तो वह पूरी तरह से स्वतंत्र हो जायेगें और  इकनामिक फ्रीडम की श्रेणी में आ जायेगें . ध्यान में रखना चाहिए कि बीजेपी के नेता , नरेंद्र मोदी भी इस देश में इक्नामिक फ्रीडम की अवधारणा के समर्थक हैं और उनको इस क्षेत्र में दिया जाने वाला देश सर्वोच्च पुरस्कार भी मिल चुका है . दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनको  राजीव गांधी फाउन्डेशन की और से दिया गया था जिसकी अध्यक्ष कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी हैं . जानकार बताते हैं कि अर्थव्यवस्था के दार्शनिक आधार के बारे में कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही मनमोहन सिंह के आर्थिक चिंतन को सही मानते हैं .

कांग्रेस के घोषणा पत्र में वे सारी बातें समाहित कर ली गयी हैं जो अगर लागू हो गयीं तो इस देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आर्थिक मनमानी के निजाम के अधीन हो जायेगी . कांग्रेस के घोषणा पत्र को मोटे तौर पर पंद्रह सूत्रों में पिरोया गया है .. इसमें स्वास्थ्य ,पेंशन ,आवास का अधिकार , सम्मान का अधिकार , उद्यमित्ता का अधिकार आदि को शामिल किया गया है .. महिलाओं के अधिकार , सुरक्षा आदि से सम्बंधित जो पारंपरिक बातें हैं वह  महत्वपूर्ण  हैं लेकिन जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को निरंकुश पूंजी के हाथ में देने वाली हैं उनका अब तक शासक वर्गों की किसी  राजनीतिक पार्टी ने विरोध नहीं किया है . विकास दर और अन्य आंकड़ों के बीच में जो बातें देश की अर्थव्यवस्था को आम आदमी की पंहुच के बाहर ले जाने वाली हैं उनको बहुत ही करीने से बीच में डाल दिया गया है  कांग्रेस के घोषणा पत्र में लिखा है की " हम एक ऐसी खुली हुई और कम्पटीशन वाली अर्थव्यवस्था को प्रमोट करेगें जिसमें  घरेलू और दुनिया भर के  पूंजीपति और आम आदमी एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा कर सकेगें ." इसका भावार्थ यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था को बिलकुल स्वतंत्र छोड़ दिया जाएगा  जिसमें उद्योग लगाने के लिए बैंक से क़र्ज़ लेकर आया हुआ कुशल और प्रशिक्षित इंजीनियर , देश का सबसे धनी उद्योगपति और अमरीका या यूरोप की बड़ी से बड़ी कंपनी  समान अवसर के साथ एक दुसरे का मुकाबला  कर सकेगें . सरकार की तरफ से किसी को कोई विशेष सुविधा या अवसर नहीं दिया जाएगा . आसानी से समझा जा सकता है कि यह प्रबंधन क्या गुल खिलायेगा. कृषि क्षेत्र  में भी भारी  निवेश की बात की गयी है लेकिन खेती से होने वाली पैदावार को भी कारपोरेट तरीके से करने पर जोर दिया जाएगा और धीरे धीरे देश कारपोरेट खेती की तरफ अग्रसर होगा . कांग्रेस का तर्क है कि ऐसा करने से खेती से मिलने वाली पैदावार बढ़ेगी . लेकिन इकनामिक फ्रीडम का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा क्योंकि किसान के हाथों में जो अभी खेती के उत्पादन के साधन का नियंत्रण  है वह कारपोरेट हाथों में चला जायेगा क्योंकि किसान इस देश के  बड़े औद्योगिक घरानों और दुनिया भर के कृषि धन्नासेठों से मुकाबला नहीं कर सकेगा .
बड़े औद्योगिक घरानों को अभी सबसे ज़्यादा परेशानी मजदूरों को उचित मजदूरी देने में होती है और कर्मचारियों की तनखाह एक बड़ा बोझ होता है . कई बार तो ऐसा होता है कि कारखाने में कोई काम नहीं होता और कर्मचारियों को तनखाह देना पड़ता है .इसको दुरुस्त करने के लिए देश और विदेश के उद्योगपति पिछले कई वर्षों से  कोशिश कर रहे हैं . उसको श्रम कानून में सुधार का नाम दिया जाता रहा है . कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस बार इस समस्या का हल भी निकाल दिया गया है . घोषणा पत्र में लिखा है कि ऐसी लाछीली श्रमनीति बनाई जिससे औद्द्योगिक उत्पादान की प्रतिस्पर्धा बनी रहे और भारतीय उत्पादन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम्पटीशन बना रहे . इसका अर्थ यह ऐसे श्रम कानून बनाए  जायेगें जिसके बल पर उद्योगपति जब चाहे कर्मचारियों और मजदूरों को काम पर रखें या जब चाहें अलग कर दें . कांग्रेस के घोषणापत्र में बाकी बातें वही हैं जो कांग्रेस पिछले दस वर्षों से करती रही है . लेकिन अगर कांग्रेस सत्ता में आयी तो उनके घोषणा पत्र में ऐसी व्यवस्था है कि साधारण पूंजीवादी निजाम से आगे बढ़ कर इकनामिक फ्रीडम वाला निजाम कायम कर दिया जाएगा .