Wednesday, July 31, 2013

भाई मंसूर की बेटी आयी है .



शेष नारायण सिंह
दिल्ली में राजेन्द्र नाम की दो संस्थाएं हैं जिनके पास कुछ देर बैठने से दिमाग की वैचारिक स्तर की बैटरी चार्ज हो जाती है . राजेन्द्र शर्मा में तानाशाही के लक्षण बहुत ज्यादा हैं . दिल्ली के आस पास रहने वाला कोई भी पढ़ा लिखा आदमी बता देगा कि सत्तर के दशक का तानाशाह कौन है . लेकिन विचारों की स्पष्टता लाजवाब है और अपना मतलब उसी से है  .  राजेन्द्र प्रसाद नाम की दूसरी संस्था के बारे में जानकार बताते हैं कि तानाशाह वह भी है लेकिन बात छुपी हुई रहती है , पाब्लिक डोमेन में नहीं है . बहरहाल अपनी समस्या यह है कि ज़्यादा पढ़े लिखे न होने के कारण अक्सर ही ब्लैंक हो जाते हैं , समझ में नहीं आता कि क्या करें . ऐसी सूरत में इन दो संस्थाओं में से किसी एक  के पास एकाध घंटे बैठ लेते हैं ,इन लोगों को पता भी नहीं चलता और अपन तरोताज़ा हो कर निकल पड़ते हैं .  ऐसी ही एक  सुबह पिछले हफ्ते दिल्ली में राजेन्द्र प्रसाद के पास बैठे थे कि एक झोंका आया और सामने से पाकिस्तानी टेलिविज़न की सबसे ज़्यादा चर्चित और नामवर अदाकारा प्रकट हुईं . मेरे बिलकुल सामने सानिया सईद मौजूद थीं . जिन लोगों को पाकिस्तानी टेलिविज़न के बारे में मामूली सा भी अंदाज़ है उन्हें मालूम है कि सानिया सईद का क्या मतलब है . हिन्दुस्तानी टेलिविज़न में उस टक्कर की कोई स्टार नहीं है . तुलसी का रोल कुछ दिन तक कर चुकी अभिनेत्री स्मृति ईरानी में वह संभावना थी लेकिन वे राजनीति में चली गयीं और अब टी वी की दुनिया से दूर जा चुकी हैं .
सानिया सईद आजकल भारत आयी हुई हैं . जो लोग नहीं जानते उनके लिए यह जानना  ज़रूरी है कि सानिया सईद  कौन हैं . पाकिस्तानी टेलिविज़न में वे अभिनेत्री , निदेशक, प्रोड्यूसर और एंकर के रूप में जानी जाती हैं .  समकालीन टेलिविज़न में उनके टक्कर की भारत और पाकिस्तान में कोई कलाकार नहीं है . बताया जाता है कि दस साल की उम्र में उन्होंने अभिनय शुरू कर दिया था . जब सानिया से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें याद नहीं कि कब उन्होंने अभिनय शुरू किया था . क्योंकि उनके घर में थियेटर का माहौल था ,उनके  माता पिता  दिल्ली की अदब की उस परम्परा से ताल्लुक रखते हैं जिसे दिल्ली की तहजीब कहा जाता है. ऐसे माहौल में सानिया ने अपने बचपन में एक्टिंग कब शुरू की किसी को नहीं मालूम . सानिया ने बताया कि उन्होंने जब औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया उसके पहले वे थियेटर को अपने बचपन के किसी खिलौने की तरह जानने लगी थीं .
सानिया का बचपन पाकिस्तान में जिया उल हक की तानाशाही के दौर में बीत रहा था. उनके पिता मंसूर सईद पाकिस्तान में तानाशाही निजाम के राजनीतिक दर्शन को हर मुकाम पर चुनौती दे रहे थे . राजनीतिक बिरादरी बहुत बड़े पैमाने पर  जिया उल हक के सामने घुटने टेक चुकी थी , सांस्कृतिक तरीकों का इस्तेमाल मुल्लापन्थी राजनीति को ललकार रहा था ,भाई मंसूर उस तूफ़ान के हरावल दस्ते में शामिल थे और उसी दौर में उनकी यह बच्ची बड़ी हो रही थी. अपने इंतकाल के पहले उनसे जब दिल्ली में मेरी मुलाकात हुई थी तो उन्होंने गर्व से बताया था कि उन दिनों उनको पाकिस्तान  में  सानिया सईद के वालिद के रूप में पहचाना जाता है .
 दिल्ली में मुलाक़ात के करीब तीन दिन बाद सानिया सईद से मुंबई में  अचानक मुलाक़ात हो गयी.  वर्सोवा के अपनी ममेरी बहन के फ़्लैट में फर्श पर  बैठकर जब उसने मुझसे बात की तो मुझे लगा कि भाई मंसूर और आबिदा हाशमी सईद की यह बेटी उनके मिशन को आगे ले जा रही है . जो बातें सानिया ने मुझे नहीं बताईं और जिनको पाकिस्तान का कोई भी इन्सान जानता है और भारत में जो भी टेलिविज़न और नाटक के जानकार हैं ,उन सबको मालूम है , उसे बताना ज़रूरी है .सानिया ने पाकिस्तान के हर ज्वलंत मुद्दे  पर अपने अभिनय के ज़रिये हस्तक्षेप किया है . परिवार नियोजन जैसे मुद्दे पर पाकिस्तानी टी वी पर  जिस कार्यक्रम ने तूफ़ान मचाया था उसकी मुख्य कलाकार सानिया  सईद  ही थीं . जब कार्यक्रम बानाने वालों ने उनसे कहा कि मामला परिवार नियोजन का है और ऐसी बहुत सारी बातों का उल्लेख होगा जिनको पाकिस्तानी  समाज में बहुत बोल्ड माना जाता है इसलिए उन्हें चाहिए कि वे अपने माता पिता से परमिशन ले लें तो सानिया ने कहा कि उनके पैरेंट्स को उनपर पूरा भरोसा है वे उनसे बात तो ज़रूर करेगीं लेकिन परमिशन जैसी कोई चीज़ उनके पालन पोषण में नहीं डाली गयी है . उनको हर हाल में  सही फैसले लेने की तमीज सिखाई गयी है .बहरहाल उन्होंने इस प्रोग्राम में काम किया और आहट नाम का यह कार्यक्रम पाकिस्तानी टी वी का बहुत महतवपूर्ण कार्यक्रम है .यह कार्यक्रम आज से बीस से भी ज्यादा साल पहले बना था और आज तक इसकी धमक पाकिस्तानी क्रिएटिविटी की गलियारों में महसूस की जाती है .उसके बाद सितारा और मेहरुन्निसा आया जिसकी भी के टी वी प्रोग्रामिंग में संगमील की हैसियत है . सानिया सईद ने  यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की पढाई  की है .शायद इसीलिएय जब वे किसी भी पात्र को परदे पर पेश करती हीं या नाताक में उसका रोल करती हैं तो लगता है कि सानिया नाम की  अभिनेत्री कहीं चली गयी है ,उनके रोम रोम में उसी पात्र का बसेरा हो जाता है . सानिया कम्युनिस्ट  माता पिता की बेटी हैं और यह उनके हर रोल में साफ़ नज़र आता है . कहीं नहीं लगता कि वे उपदेश दे रही हैं . उनका झुमका जान वाला रोल हर पाकिस्तानी को याद है . झुमका जान एक पारंपरिक रक्कासा थीं लेकिन उन्होंने औरत के रूप में अपनी ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जिया . पाकिस्तान के उस समाज में भी जहां कट्टरपंथियों की ही चलती है उस समाज में भी सानिया की झुमका जान एक सशक्त स्टेटमेंट के रूप में देखी गयीं , रोल को इस अभिनेत्री ने जिस तरह से किया उस से कहीं नहीं लगा कि वे झुमका जान की लिए कहीं से सहानुभूति मांग  रही हैं . झुमका जान  की असल ज़िंदगी की मजबूरियों को भी सानिया ने जो बुलंदी दी उसे देख कर किसी को भी औरत होने पर गर्व हो सकता है .
सानिया के बारे में कोई भी पाकिस्तानी आपको बता देगा वे वही करती हैं जिसमें उनको विश्वास होता है . अपने आस पास के कलाकारों से मीलों ऊपर सानिया की मौजूदगी पक्के तौर  पर सुनिश्चित हो चुकी है और आज वे समकालीन  दक्षिण एशियाई टेलिविज़न की सबसे महान कलाकार हैं .उनके कुछ प्रोग्रामों के नाम दे दे रहे हैं ,कहीं हाथ लग जाए तो देख कर ही अंदाज़ लग सकेगा कि सानिया सईद  कितनी बड़ी कलाकार हैं . नाटक—तलाश, चुप दरिया, बिला उनवान . सीरियल----- सितारा और मेहरुन्निसा, जेबुन्निसा ,आहट, आंसू, एक मुहब्बत सौ अफ़साने, कहानियां, शायद के बहार आये, और ज़िंदगी बदलती है ,खामोशियाँ,झुमका जान आदि. साने के तीन टी वी शो ऐसे हैं जिसको  हमेशा याद रखा जाएगा उनके नाम हैं , सहर होने को है  , हवा के नाम और माँ .
सानिया सईद के परिवार के बारे में जब तक ज़िक्र न किया जाए समकालीन भारतीय की समझ में ही नहीं आएगा कि आज  बुड्ढा यह क्या लिखने बैठ गया . उनके पिता मंसूर सईद ने भारत में छात्र राजनीति को दिशा दी थी लेकिन अपनी जिस कजिन से इश्क करते थे उनके माता पिता १९४७ में कराची पाकिस्तान जा बसे थे . आप शादी करने के लिए पाकिस्तान गए थे. भाई मंसूर ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय में नाम लिखाया तो स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य बने और आस पास के लोगों को पक्का यक़ीन हो गया कि बस अब इंक़लाब आने में बहुत कम अरसा रह गया है . यह अलग बात है कि भाई मंसूर को ऐसा कोई मुगालता नहीं था . भाई मंसूर ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया . अपनी बचपन की दोस्त और अपनी रिश्ते की चचेरी बहन से जब वे शादी करने कराची गए तो किस को उम्मीद थी कि दोनों मुल्कों के बीच लड़ाई शुरू हो जायेगी . लेकिन लड़ाई शुरू हुई और वे वापस नहीं आ सके . लेकिन दिल्ली में उनके चाहने वालों का आलम यह था कि वे भाई मंसूर का अभी तक इंतज़ार कर रहे हैं लेकिन वे वहाँ चले जा चुके हैं हैं जहां से कोई नहीं आता .

दिल्ली और कराची में बाएं बाजू की राजनीतिक सोच को इज्ज़त दिलाने में भाई मंसूर का बहुत बड़ा योगदान है . उन्होंने बाएं बाजू की राजनीति करने वालों को पाकिस्तान के खूंखार जनरल जिया उल हक से पंगा लेने की तमीज सिखाई थी.
जब मंसूर सईद पाकिस्तान गए तो वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद क़ाज़ी हुसैन अहमद और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था. जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. दिल्ली में अपने कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me . सानिया सईद उन्हीं मंसूर सईद की बेटी हैं ..

Sunday, July 14, 2013

मेरे गाँव की सबसे बड़ी देवी ,काली माई , का निवास नीम के पेड़ में था




शेष नारायण सिंह

मेरे बचपन  में जब भी कोई ऐसी समस्या आती थी जिसका हल किसी इंसान के पास नहीं होता था तो मेरी माँ काली माई की पूजा करके उसका समाधान निकालती थीं. जब भी कोई बीमारी हुई और एक दिन से ज़्यादा तबियत खराब रह गयी तो मेरी माँ काली माई का आह्वान करती थीं और सब कुछ ठीक हो जाता था. वे हर सोमवार और शुक्रवार को काली माई के स्थान पर जल चढाने  जाती थींवैसे भी अगर कभी कोई परेशानी आती थी तो काली माई से गुहार लगाई जाती थी. मेरे गाँव में पचास के दशक में ईश्वर के जो स्वरूप थे उनमें काली माई सबसे प्रमुख थीं . काली माई की जो छवि मैंने बचपन में देखी थी वह सभी  संकटों का हरण करने वाली तो थीं लेकिन वे किसी मूर्ति में नहीं गाँव के पूरब तरफ एक नीम के पेड़ में विराजती थीं . पेड़ के चारों तरफ पास के तालाब से मिट्टी लाकर चबूतरा बना दिया गया था.  हर खुशी के मौके पर काली माई का दर्शन ज़रूर किया जाता था, लड़के की शादी के लिए जब बारात तैयार होती थी  तो सबसे पहले काली माई का दर्शन होता था. लड़कियों की शादी में गाँव की इज्ज़त की रक्षा वही कालीमाई करती थीं . शादी व्याह के अनिवार्य कार्यक्रमों में  काली माई के स्थान पर जाना प्रमुख  था .यह परम्परा अब तक चली आ  रही है .नीम का यह पेड़ मेरे गाँव के लोगों के लिए एक दैवीय शक्ति है और वही मेरे गांव की सामूहिक आस्था का केन्द्र है . 

जब मारवाड़ी महासभा के महामंत्री महेश राठी ने मुझसे अपने संगठन के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए कहा और बताया कि नीम का प्रचार प्रसार उनेक संगठन के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है तो मैं वापस अपने गांव में पंहुचकर खो गया . नीम का स्वरूप मेरे मन में किसी पेड़ का नहीं है ,वह तो मेरी माँ की शक्ति का प्रतिनिधि है जिसने बड़ी से बड़ी समस्याओं को उसी नीम के पास हाजिरी लगाकर हल करवाया है .मारवाड़ी महासभा ने जो बड़े पैमाने पर नीम के वृक्षारोपण का कार्यक्रम चलाया है वह कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है . उनका यह कार्यक्रम वर्षों से चल रहा है .इस संगठन में उन्हीं मारवाड़ियों को शामिल करते हैं जिन्होंने नीम के कम से काम पांच पेड़ लगाए हों .महेश राठी मुंबई में रहते हैं और उनका यह कार्यक्रम मुंबई में आयोजित किया जा रहा है . वे मुंबई और ठाणे महानगर के सभी इलाकों में आवासीय सोसाइटियों मे नीम का पौधा लगाने का अभियान चला रहे हैं .
नीम के प्रचार प्रसार के लिए जो भी अभियान चलाए, उसका सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि नीम को गरीब आदमी के वैद्य के रूप में भारत के ग्रामीण इलाकों में सम्मान मिला हुआ है . यह भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में तो यह बहुत ही अहम वृक्ष है ही , बाकी दुनिया में भी इसे बहुत बुलंद मुकाम हासिल है .इसकी खासियत यह है कि यह कम पानी वाले इलाके में भी हरा भरा रह सकता है . सूखे की हालत में भी नीम का अस्तित्व बचा रहता है . राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों के लिए तो यह वरदान  स्वरूप ही है .नीम का पेड़  यूकेलिप्टस की तरह ज़मीन का पानी खींचकर रेगिस्तान नहीं बनाता है . रेगिस्तान को नीम हराभरा करने के काम आता है क्योंकि  यह ज़मीन का सारा पानी नहीं सोखता . नीम एक जीवनदायी  वनस्पति है . कीड़ों को दूर रखने के लिए इसका खूब इस्तेमाल होता है .यह एंटीसेप्टिक के रूप में भी इस्तेमाल होता है .कुछ इलाकों में तो नीम की पत्तों की सब्जी भी बनायी जाती है. पिछले दो हज़ार वर्षों से नीम का भारतीय जन जीवन में बहुत ही प्रमुख स्थान है .इसका इस्तेमाल डायबिटीज़ , वाइरल बुखार , और  फुंसी आदि के इलाज़ के लिए हमेशा से ही होता रहा है . शायद इसीलिये इसे पवित्र वृक्ष के अलावा ग्रामीण दवाखाना और  प्रकृति की फार्मेसी के रूप में भी जाना जाता है . बहुत सारे चर्म रोगों के इलाज़ के लिए नीम के तेल और पत्तों का इस्तेमाल होता रहा  है . बहुत सारी आयुर्वेदिक , यूनानी और सिद्ध दवाओं में  नीम के तेल का इस्तेमाल किया जाता है .  सौंदर्य प्रसाधन और साबुन में भी नीम का इस्तेमाल होता है
१९९५ में यूरोप के पेटेंट आफिस ने अमरीकी कंपनी डब्लू आर ग्रेस और अमरीका सरकार के कृषि विभाग को नीम के  के किसी प्रासेस का पेटेंट दे दिया था . भारत सरकार ने इस आदेश को चुनौती दी और यह साबित कर दिया कि भारत में बहुत सारी चिकित्सा नीम के उत्पादों के सहयोग से  होती है . इसलिए २००५ एन हमेशा के लिए भारत के पक्ष में नीम के उत्पादों का पेटेंट सुरक्षित हो गया .

मैं महेश राठी का आभारी हूँ जिन्होंने नीम के बारे में ज़िक्र करके मुझे मेरे गाँव में पंहुचा दिया और मेरे उस बचपन को जिंदा कर दिया जिसमें मेरी माँ , मेरी बड़ी बहन और कालीमाई के अलावा मेरा कोई भी रक्षक नहीं था 

जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन और जाति के विनाश का बुनियादी सवाल



शेष नारायण सिंह

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच का एक फैसला आया है जिसमें जातियों की राजनीतिक सभाएं करने पर रोक लगा दी गयी है . जाति के आधार पर पहचान और उससे चुनावी फायदों की राजनीति करने वालों को इस फैसले से झटका  लगना शुरू ही हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया  गया कि जिसमें लिखा है कि वे नेता चुनाव नहीं लड़ सकते जिनको कानूनी तौर पर गिरफ्तार किया गया हो . इसके एक दिन पहले एक फैसला आया था कि जिस नेता को किसी भी कोर्ट से दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा हो जाए वह भी चुनाव नहीं लड़ सकता . इन फैसलों को नेता बिरादरी स्वीकार नहीं करेगी . इन फैसलों की मंशा  को नाकाम करने के लिए अगर ज़रूरी हुआ तो वे लोग संसद के अधिकार का प्रयोग करके नियम क़ानून  भी बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक सुविधा को अमली जामा पहनाने के लिए  राजनीतिक समुदाय के लोग न्यायिक हस्तक्षेप के खिलाफ माहौल बनायेगें . आशंका है कि उसी माहौलगीरी में कहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट का जाति आधारित चुनावी रैलियों के बारे में आया महत्वपूर्ण फैसला भी  बेअसर न हो जाए. फैसला आने के बाद शासक वर्गों की सभी राजनीतिक पार्टियां  जाति की राजनीति से बाहर निकलने के लिए तैयार नज़र नहीं आ रहीं हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि आगे क्या होता है .

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ में  ब्राह्मणों की एक चुनावी सभा की थी . उस सभा में आये ब्राह्मणों को देख कर उन राजनीतिक पार्टियों के सामने मुसीबत का पहाड खड़ा नज़र आने लगा  था जो  आगामी चुनावों में उत्तर प्रदेश के ब्राहमणों को अपने साथ लेने की फ़िराक में हैं . ठीक इसी वक़्त हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका आ गयी और माननीय अदालत ने जाति के आधार पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन के खिलाफ हुक्म सुना दिया . अगर यह हुक्म असर दिखाता है तो यह भारतीय समाज के लिए बहुत ही उपयोगी होगा . राजनीतिक बिरादरी को जाति के आधार पर लोगों को लामबंद करके वोट लेने की रिवायत से बाज़ आना चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश में सक्रिय  तीन बड़ी पार्टियों के आदर्श महापुरुषों ने जाति आधारित राजनीति का विरोध किया है . कांग्रेसियों के आराध्य महात्मा गांधी , समाजवादी पार्टी के महापुरुष डॉ राम  मनोहर लोहिया और बहुजन समाज पार्टी के नेताओं के देवता , डॉ बी आर अम्बेडकर ने जाति के विनाश को अपनी राजनीति का बुनियादी आधार बनाया है. महात्मा गांधी ने जाति आधारित छुआछूत के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई के साथ साथ आंदोलन चलाया और उसे आज़ादी की लड़ाई का इथास बताया . डॉ राम मनोहर लोहिया की किताब जाति प्रथा में उनके भाषणों, पत्रों  और कुछ लेखों का संकलन है .उन्होंने जाति के विनाश की बातें बार बार कहीं थीं. उन्होंने कहा कि ,” जातियों ने हिन्दुस्तान को भयंकर नुक्सान पंहुचाया है “ एक नया जगह पर लिखा है कि ,”हिन्दुस्तान बार बार विदेशी फौजों के सामने  घुटने क्यों टेक देता है . इतिहास साक्षी है कि जिस काल में जाति के बंधन ढीले थे ,उसने लगभग हमेशा उसी काल में घुटने नहीं टेके हैं .” डॉ लोहिया कहते हैं कि  जाति का बंधन ऐसा था कि जब भारत पर हमला होता था  तो ९० प्रतिशत लोग युद्ध से बाहर रहते थे और युद्ध का काम केवल १० प्रतिशत लोगों के जिम्मे होता था.  ऐसा जाति प्रथा के कारण होता था क्योंकि युद्धका काम केवल क्षत्रियों के नाम लिख दिया गया था .उन्होंने  सवाल उठाया है कि जब ९० प्रतिशत लोगों को  राष्ट्र की रक्षा के काम से बाहर रखा जाएगा तो राष्ट्र की रक्षा किस तरह से होगी. डॉ लोहिया के पूरे  लेखन में जाति प्रथा को खत्म करने की बात बार बार की गयी है . उन्होंने कहा है कि जब तक जातियों में शादी व्याह के सम्बन्ध नहीं बनते  तब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता .और जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक सामाजिक एकता की स्थापना असंभव है .


पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बी आर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। अपनी किताब The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज कई पार्टियां डॉ अम्बेडकर के दर्शन शास्त्र को आधार बनाकर राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर रही  हैं .उत्तर प्रदेश की नेता मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज बहुजन समाज पार्टी एक राजनीतिक ताक़त है . इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली पार्टी और उसकी सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।
मायावती की पिछले पचीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को  मायावती की पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।


डॉ बी आर अम्बेडकर ने जाति के विनाश के मुद्दे पर कभी कोई समझौता नहीं किया .उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला . लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ताकाफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक 
के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन है . और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास हैलेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का थालेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही हैलोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे हैयह अलग बात है।

इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए। अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैबराबरी . ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
अब जाति को एक मामूली ही सही ,लेकिन सार्थक धक्का देने वाला जो  फैसला इलाहबाद हाई कोर्ट ने  किया है ,उसके आधार पर समाज के जागरूक लोगों को सक्रिय हो जाना चाहिए . जाति के विनाश के सबसे बड़े समर्थकों , डॉ राममनोहर  लोहिया  और डॉ बी आर अम्बेडकर के अनुयायियों से यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनकी सत्ता की बुनियाद ही जाति की पहचान के आधार पर बनी हुई है .इन पार्टियों में  उन महान चिंतकों की बुनियादी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। समाजशास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक  विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है हैऔर उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है लेकिन जाति के आधार पर सत्ता हासिल करने वालों से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे जाति के शिकंजे को कमज़ोर पड़ने देगें .

Friday, July 5, 2013

डॉ अम्बेडकर ने कहा था " बाबू जगजीवन राम भारत के चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा और ऋषि राजनेता हैं ".



शेष नारायण सिंह  

महात्मा गांधी ने जगजीवनराम  बारे में  कहा था कि  " जगजीवन राम  कंचन की भांति खरे और सच्चे हैं . मेरा हृदय इनके प्रति आदरपूर्ण  प्रशंसा से आपूरित है " यह तारीफ़ किसी के लिए भी एक बहुत बड़ी सर्टिफिकेट हो सकती है . जब आज़ादी के लड़ाई  शिखर पर थी तब महात्मा गांधी ने बाबू जगजीवन राम के प्रति यह राय बनायी थी . लेकिन जगजीवन राम ने इसे कभी भी अपने सर पर सवार नहीं होने दिया हमेशा महात्माजी के बताये गए रास्ते पर चलते रहे और कंचन की तरह तप कर भारत राष्ट्र और उसकी संस्थाओं के निर्माण में लगे रहे . जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य रहेजब कामराज योजना आयी तो सरकार से इस्तीफा दिया फिर नेहरू के आवाहन सरकार में आये .  लाल बहादुर शास्त्री की  सरकार में मंत्री रहे ,इंदिरा गांधी के साथ मंत्री रहे .जब  इंदिरा गांधी ने कुछ  क़दम उठाये  तो कांग्रेसी मठाधीशों के वर्ग सिंडिकेट वालों ने इंदिरा गांधी को औकात बताने की योजना पर काम शुरू किया तो वे इंदिरा गांधी एक साथ रहे . उन्होंने कहा कि  पूंजीवादी विचारों से अभिभूत कांग्रेसी अगर इंदिरा गांधी को हटाने में  सफल हो जाते हैं तो कांग्रेस ने जो भी प्रगतिशील काम करना शुरू किया है वह सब ख़त्म हो जाएगा .इसी सोच के तहत उन्होंने चट्टान की तरह इंदिरा गांधी का साथ दिया . कांग्रेस  विभाजन के बाद वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने और कांग्रेस का नाम उनके नाम से जोड़कर देखा गया . इंदिरा गांधी जिस कांग्रेस की नेता के रूप में  प्रधानमंत्री बनी थीं उसका नाम कांग्रेस ( जगजीवन राम ) था.  पिछली सदी के सबसे महान राजनेताओं में उनका नाम शुमार किया जाता है .  दलित अधिकारों के संघर्ष का पर्याय बन चुके डॉ भीम राव आंबेडकर ने उनके बारे में जो कहा वह किसी भी भारतीय के लिए गर्व की बात  हो सकती है . बाबासाहेब ने कहा  कि ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं ".

इतनी सारी खूबियों के बावजूद बाबू जगजीवन राम ने कभी भी सफलता को अंतिम लक्ष्य  नहीं माना .अपने जीवन एक अंतिम क्षण तक उन्होंने लोकतंत्र , समानता  और इंसानी सम्मान के लिए प्रयास किया . ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं” . यह बता ऐतिहासिक रूप से  साबित हो चुकी है कि जब बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से किनारा किया तो कांग्रेस के सबसे पक्के वोट बैंक ने कांग्रेस से अपने आपको अलाग कर लिया था. जानकार बताते हैं कि अगर १९७७ की फरवरी में बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा न दिया होता तो कांग्रेस  को १९७७ न देखना पड़ा होता .इस पहेली को समझने के लिए समकालीन इतिहास पर नज़र डालना ज़रूरी है .
२४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ जनता खड़ी हो गयी थी .जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली थी चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से १ मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया था .
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . उस लड़के ने इंदिरा गाँधी के शासन काल में सरकार के फैसलों दखल देना शुरू कर दिया था .वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का जो रुख सामने आया ,वह बहुत ही डरावना था . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बेटे ने ऐसे लोगों को कांग्रेस की मुख्यधारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल गया . संजय गांधी के कारण  कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की हितचिन्तक पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया हैजो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इसलिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत पस्त थी लेकिन २ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत के दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित सामाजिक क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी . 
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के पैरोकारकांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. उन्होंने डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में नई दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत बड़ा सम्मलेन किया  बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का प्रधानमंत्री बनना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की हैसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक बहुत बड़े रोड़े के के रूप में हमेशा याद किया जाएगा . यह भी सच है कि जगजीवन राम के कांग्रेस से अलग होने के बाद सामाजिक  परिवर्तन की जो संभावना बनी थी वह मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद शून्य में बदल गयी .